नई दिल्ली। 1976 में लगे आपातकाल को 50 साल पूरे हो चुके हैं। उस दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान में कई बड़े बदलाव किए थे। इन्हीं में से एक था संविधान की प्रस्तावना में कुछ शब्दों को जोड़ना, जिनमें ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ जैसे शब्द शामिल हैं। अब इस मुद्दे पर देश की राजनीति एक बार फिर गर्म हो गई है।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस मामले में एक बड़ा बयान देते हुए कहा कि भारत का संविधान एक ‘जीवंत दस्तावेज’ है लेकिन उसकी प्रस्तावना बदली नहीं जा सकती। उन्होंने कहा कि दुनिया के किसी भी देश में संविधान की प्रस्तावना में इस तरह बदलाव नहीं किए गए, यह सिर्फ भारत में हुआ।
धनखड़ ने क्या कहा प्रस्तावना पर?
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा,
“भारतीय संविधान की प्रस्तावना को 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत बदला गया था। इसमें ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ जैसे शब्द जोड़े गए थे। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने संविधान निर्माण में अहम भूमिका निभाई थी। अगर ये शब्द ज़रूरी होते तो वे इसे पहले ही जोड़ देते। लेकिन ऐसा नहीं किया गया, क्योंकि प्रस्तावना का मूल स्वरूप ही संविधान की आत्मा है।”
दत्तात्रेय होसबाले ने भी उठाया था सवाल
हाल ही में आरएसएस के सरकार्यवाहक दत्तात्रेय होसबाले ने भी इस मुद्दे को उठाया था। उन्होंने कहा था कि बाबा साहब अंबेडकर ने संविधान की मूल प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्दों को शामिल नहीं किया था। लेकिन आपातकाल के दौरान इन्हें जोड़ा गया, जो संविधान की मूल भावना से मेल नहीं खाते। उन्होंने इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता बताई थी।
केंद्रीय मंत्रियों का समर्थन
दत्तात्रेय होसबाले के इस बयान के बाद कई भाजपा नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों ने भी इस मुद्दे को समर्थन दिया। केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह और शिवराज सिंह चौहान ने भी कहा कि मूल संविधान में ये शब्द नहीं थे और अब समय आ गया है कि प्रस्तावना में किए गए इन बदलावों पर दोबारा विचार किया जाए।
निष्कर्ष
उपराष्ट्रपति धनखड़ का यह बयान न सिर्फ आपातकाल के दौर की याद दिलाता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि संविधान की मूल आत्मा और प्रस्तावना को लेकर अब एक नई बहस शुरू हो सकती है। देखना होगा कि आने वाले दिनों में यह मुद्दा राजनीतिक और संवैधानिक हलकों में क्या रूप लेता है।